Tuesday, October 28, 2014

हु पथिक मैं अनजान राहो का है सिलसिला ये थकती निगाहों का

हु पथिक मैं अनजान राहो का 
है सिलसिला ये थकती निगाहों का 
है होठ थरथराते इस भवर में कही 
धुंधला सा आसमा तेरी बाहों का 
हु पथिक मैं अनजान राहो का 
है सिलसिला ये थकती निगाहों का 

राहे होती नही खत्म जिन्दगी की कही
इक डोर जो टूटी कई है भी जुडी
तपता सूरज भी लेता परीक्षा हर घडी
कब तक तन्हा चलू,मंजर है हुबहू
तुमने छोड़ दिया दामन तडपती आहो का
हु पथिक मैं अनजान राहो का
है सिलसिला ये थकती निगाहों का

मैं चलता रहा और चलता गया
समय भी हरपल मुझको छलता गया
मैंने माँगा नही था सिवा कुछ पल सुकून के
फूल की नही थी अभिलाषा मुझे
मन में ना ही कोई थी आशा नई
पग पग वो कांटे ही बिछाता गया
हु पथिक मैं अनजान राहो का
है सिलसिला ये थकती निगाहों का

No comments: