जाने क्यों सांझ होते ही
यादों के आने का सिलसिला ,,,कुछ बढ़ सा जाता है,,
हम्म,,,तुमसे दूर जो हूं,,,
हम्म,,,मजबूर जो हूं,,,
कुछ कर नही सकते,,
पर इस मन का क्या करे,,
जिनमे बिन रोक टोक की ,,
तुम्हारी यादे चली आती है,,,
और मैं इनमे खोकर,,,
इकटक आवाज लगाता हु,,,
अजी सुनती हो,,,
और बाहे कुछ हरकत करे ,,,उससे पहले
ये एहसास हो जाता है,,
की तुम मेरे पास नही हो,,,
की तुम मेरे साथ नही हो,,,
और आँखे,,स्तब्ध सी,,,
किवाड़ के बाहर एकटक देखती रहती है,,
की शायद कोई आवाज आये,,,
कोई मेरे पास आये,,,
धीरे धीरे सांझ ढल जाती है,,,
धुंधले से अँधेरे में
कुछ तारे टिमटिमाने लगते है,,,
आंखमिचौली खेलते हुए ,,,
एक दुसरे से रूठने,,,
तो एक दुसरे को मनाने लगते है,,,
सच में ये एहसास,,,
और मेरे मिलान की प्यास,,
ना कभी खत्म हुई है,,,
और ना शायद होगी,,,
और इसी इंतज़ार के साथ
हर रात,,,,इक नयी सुबह की तलाश,,,
इक अंजान मुसाफिर,,,,
,,,,,,,भटकते हुए ,,,बस,,,और,,,
घुमते रहते है कुछ पद्चिन्हों,,, के इर्द गिर्द,,,
यही मेरी कहानी है,,,
निर्मल अवस्थी
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