छोटी सी चिरैया ,,आती थी कभी इस आंगन में,,
जब होते थे वो घास फूस वाले छप्पर,,
जिनमे बारिस में टिप टिप कर गिरता था पानी हर कोने से
उसमे हम भी तलासते रहते थे जगह छोटी सी,,
वो पोखरों में पानी भरकर,, जब आ जाता था पगडंडियों पर,,
सम्भलकर चलकर भी ,,फिसलकर गिर जाते थे कभी कभी,,
वो बगिया हरी भरी अमोली वाली,,
जिसको हम नाम से पुकारते थे गंगा बगिया,,
वो आम की डाली जो झूले की तरहा थी,,
जो जमीन को छूकर कभी उठ जाती थी हवा के झोंके के संग,,
वो तपती दोपहरी में घर से नमक रोटी ले जाकर,,
पकी अम्बिया के संग खाना,, छप्पनभोग से कम ना था,,
दिन के तीनों पहर पर हो जाते थे हंसी ठिठोली में,,
फिर घर पर आकर डाँट सुनते थे बड़ो की,,
जो चारो तरफ तालाबों से घिरा था मेरा गाँव,,
आज कुछ लोगों के कंक्रीट के महल बन गए है,,
ना आती अब वो चिरैया,,,
ना ही यारों के पास समय अब,,
अब हम भी अलग हो गए मैं में,,
ये अहम की दुनिया कैसी है,,,
इससे अच्छा तो अपना बचपन था,,,
जहाँ कुछ नही था पर अपनो के लिए समय तो था,,,
इससे अच्छा तो अपना बचपन था,,,
जहाँ कुछ नही था पर अपनो के लिए समय तो था,,,
Thursday, August 30, 2018
इससे अच्छा तो अपना बचपन था,,, जहाँ कुछ नही था पर अपनो के लिए समय तो था,,,
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