अत्यन्त ही भृमित हैं,,राहें जिंदगी की,,
कि मंजिले ले जाये किस ओर,,
हर क़दम,, क़दम दर क़दम,, बढ़ते जा रहें है,,
जैसे टूटती जा रही है प्रतिपल जीवन की डोर,,
अत्यन्त ही भृमित हैं,,राहें जिंदगी की,,
कि मंजिले ले जाये किस ओर,,
ना रुके हैं,,
ना थके हैं,,
ना झुके हैं,,
फिर भी विचलित है मन,,
ये आज का दौर,,
है निराशा चारों ओर,,
जैसे थके हुए है ये नयन,,
ना ही गाँव है,,
ना वो लगाव है,,
ना बचा रिश्तों में वो झुकाव है,,
बस इसीलिए मन भटके वन,,वन,,
हाँ चारों तरफ छा गयी घटाए घनघोर,,
अत्यन्त ही भृमित हैं,,राहें जिंदगी की,,
कि मंजिले ले जाये किस ओर,,
अब खेलों के मैदान भी सूने है,,
घरों में मकान भी सूने है,,
लोगों के दिलों में दरारें है,,
जिसमे फूलों की जगह काँटे है,,
हम लड़ना चाहते हैं,,
पर समझना नहीं,,
क्योकि दिलों में प्यार नही,,सिर्फ और सिर्फ़ द्वेष है
ना दादा ,,दादी की लोरी बची
ना दादी नानी की कहानियां,,
सब मिल जाता है छोटे से खिलोने में,,
जिसको मोबाइल हम कहते है,,
ये खिलौना है,,,या हम बन गए खिलौने,,
बस इसीलिए पदचिन्हों को देखकर,,
जाने बढ़ रहे किस ओर,,
अत्यन्त ही भृमित हैं,,राहें जिंदगी की,,
कि मंजिले ले जाये किस ओर,,
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